सपने और उम्मीद,
बस फ़रक थोड़ा सा |
ओ मेरे समझदार मन
अब आगे बढ़ो न थोड़ा सा ||
तुलना करते करते लोग,
देखते हैं, झूठे सच्चे सपने |
उम्मीद करते हैं मेहनतक़श,
काम से आगे बढ़े होते हैं अपने ||
कौन से खाने में हो मेरे यार,
ज़रा तुम भी सच सच बताना |
करते आये हो न अब तक,
बड़े सपने देखने का बहाना ||
अब खुद लिखा है तो,
खुद ही भुगतो |
उम्मीद का दामन,
थामते हुए तो दिखो ||
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