जाने किस बात की टीस

23-Jun-2020

मोर्चे कई खोलने पड़ते जब, विचारों की लड़ाई हो विचारों से
रिश्तों में क्या देखें जीत क्या देखें हार, इन झूठे सच्चे यारों से

नया सोचना होता है, विचारों की भी एक टीम बनानी होती है
इनका का भी एक व्यापार सा होता है, कमाई दिखानी होती है

लम्बी चला करती हैं ऐसी लड़ाइयां, कई पुश्तें लग जाती हैं
हारने की आदत भी होती है सीखनी, जीतें तभी सुहाती हैं

हर कोई सोचता तो है, बस हमसे सिरफिरे लिखते हैं इन बातों को
अब कागज पे नहीं उकेरते, कीबोर्ड पर ठक ठक करते हैं रातों को

मेरे लिए ये बातें हैं गंभीर, आपके लिए कैसी होंगी पता नहीं
कुछ बातें निकली हैं दिल से, कुछ नहीं, वैसे मेरी कोई खता नहीं

हम बेहतर हैं उनसे, हम सोचते हैं, वो भी तो यही सोचते होंगे
रिश्ता आगे चलायें या न चलायें, वो भी तो जरूर तौलते होंगे

बस यूं ही दिल की टीस किसी को न दिखाने की है आदत
आजकल बदला सा है माहौल, बदल गया है लफ्ज़-ए-चाहत

– सुनील जी गर्ग

मेरे पिता और मैं पिता (एक परिवर्तन)

21-Jun-2020

मेरे लिए आप एक दिवस नहीं
बस पूरे हर दिन हर साल थे
मालूम न था इतनी जल्दी जाओगे
आप गए तो अपने बुरे हाल थे

फिर संभले, ख़ुद भी बने बाप
फादर का दिन मनाने लगे बच्चे
एक दिन ही मिलने लगा हमको
रिश्ते क्यों पड़ते हैं अब थोड़े कच्चे

वो जो आप किया करते थे
हम भी तो कुछ वैसा ही करते हैं
ये दिन मनाने की अजब चली बयार
आज बच्चे नहीं, पिता बच्चों से डरते हैं

आपकी, अम्मा की तस्वीर लगी है
रोज बिना नागा नमन कर लेता हूँ
अपनी तो दीवार पर नहीं लगेगी
इंटरनेट पर रहेगी, सब्र कर लेता हूँ

पर हाँ एक बात है, बतला देता हूँ
आप आज के दिन कुछ ज़्यादा आते हो याद
बुरी नहीं ये पितृ दिवस की प्रथा
आज शायद मेरे बच्चे देंगे मेरी कविताओं को दाद

अपनी ही बुलेट बनानी होगी

18-Jun-2020

अब खून नहीं खौलता किसी का,
आदत अपनी है सुविधाभोगी
सीमा पर जाबाँज गँवाकर
बात करें, ज्यों पहुंचे जोगी

वो कवि प्रदीप अब नहीं रहे
ऐ मेरे वतन जो लिख के गए
दिनकर को अब ढूंढो मत
जो समर शेष बतला के गए

लता दीदी जब बच्ची थीं जब
पी.एम्. की आँखें हुईं नम
आज कौन वो भाव भरेगा
हर मैं को बनाएगा वो हम

कौन कौन सा टी. वी. तोडूं
किसका मैं मोबाइल पटक दूँ
चीन घुसा कतरे कतरे में
चाहे जो सामान झटक दूँ

हम गलती हैं नहीं मानते
हर बात का है कोई बहाना
पढ़ना लिखना भूल गए हम
विश्व गुरु जो खुद को माना

ऐसे में हिल जाती बिलकुल
कवि की लेखनी भी है बहकती
हल जब कोई सुझाई न देता
अंगारों सम आग बरसती

हमसे ही वरदान ये पाकर
बने ये देश हैं भस्मासुर
तस्वीर तभी सकती है बदल
जब हर बच्चा हो रण बाँकुर

आत्म निर्भरता तभी भली जब
आत्म सशक्तता हो पूरी
वक़्त को ठीक सकें पहचान
छोड़ सकें हर मजबूरी

हममें गुस्सा है या ढोंग है
सही फैसला करना होगा
आत्म सम्मान बचाकर पूरा
परिस्थिति से उबरना होगा

बदले की आग रखकर जलाये
चतुराई दिखलानी होगी
दुनिया को संग लेना होगा
सच्चाई बतलानी होगी

यू.एन.ओ. अब फिर से बनाओ
सब नियम पुराने बदलवाओ
हर छठा बच्चा है भारत का
दुनिया को ताक़त दिखलाओ

नयी कलम से नयी इबारत,
नयी आदतें लानी होंगी
थोड़ा सा त्याग, ज़्यादा सी मेहनत
अपनी ही बुलेट बनानी होगी

– सुनील जी गर्ग

बेअसर कमेरे, बेहतर कवि

01-Jun-2020

कवि को बस तारीफ चाहिए
आधा सच ये आधा झूठ
कोई कमेंट न मिलता उसको
इतनी जल्दी जाए न रूठ

कविता क्या बस तुकबंदी है
भाव वगैरह समझ है अपनी
सबके दायरे अपने अपने
सबको अपनी माला जपनी

हाँ पर हिलते कभी दिलों के
तार किसी के शब्दों से
पत्थर दिल जाते हैं पिघल
गरम खौलते कुछ लफ़्ज़ों से

पर कवि कहलाना इज़्ज़त है
या ठलुआपन की निशानी है
ढूंढ रहे सब इसका उत्तर
ये बात अभी अनजानी है ।

कुछ कवियों ने बदले इतिहास
यही सोच सब लिखते हैं
हमें तो अपनी पता है सीमा
लिखते हैं, कि आपसे रिश्ते हैं ।

कुछ करते हों या न करते हों
कवि रिश्ते तो निभाते हैं बेहतर
इनकी भी ज़रुरत है दुनिया को
जब कमेरे हो चले हों बेअसर ।

सुनील जी गर्ग

सब ख्याल रखना

31-May-2020

खा खा कर अब बोर हो गए
घर का समोसा, इडली, डोसा
खस्ता कचौरी मिली न कबसे
मुए कोरोना को रोज ही कोसा

कमर नहीं थी ऐसी लचक की
रोज लगा सके झाड़ू पोंछा
हाथ बटाएंगे वादा था हाँ
रोज की आफत किसने सोचा

मीट, टीम, और ज़ूम के रिश्ते
कब तक करेंगे हम ये दिखावा
व्हाट्सप्प भी जान को आ गया
अब अँगुलियों का दर्द न जावा

फेसबुक तो दुश्मन पहले से
मेरी प्लेट और गरम रोटी के बीच
इंस्टाग्राम अब नया ये दानव
कितनी डल गयीं सेल्फी खींच

अनलॉक की खबर अब आयी है
हलवाई समझो जुबां तक आ गया
बीमारी फिमारी सब अपनी जगह है
इसका मन से डर तो चला गया

पर वैसे ये सब मज़ाक तक ठीक है
ज़िन्दगी मज़ाक न करे, इसीलिए सम्हलना
बड़ा अच्छा लिखते थे ये चल पड़े फिर बाद में,
मैं भी रखूँगा ख्याल, आप भी अपना रखना ||

– सुनील जी गर्ग

इतिहास सब कुछ कर लेता है नोट

21-May-2020

कल न्यूज़ देखकर कुछ लिख डाला, सोचा आप सबसे शेयर करूं

फैलता जा रहा है, फैलता जा रहा है
मैं वायरस नहीं, रायते की कर रहा हूँ बात
तेज हो रही है, रफ़्तार तेज़ हो रही है
मैं तूफ़ान की नहीं, बता रहा हूँ राजनैतिक हालात।।

जैसी हुई यहाँ पर बसों पर लड़ाई
कल शायद वैक्सीन बांटने पर होगी
इस देश को अभी देखना है बहुत कुछ
महाभारत तो एक कलियुग में भी होगी

कृष्ण और अर्जुन न होंगे पर होगा ढोंग
टेक्नोलॉजी के नाम पर भरेंगे दम सब
असलियत तो सूक्ष्म विषाणु ने दिखा दी
आइना देखने पर भी सुधरे हैं हम कब ।

पर याद रखना कल गाँव से फिर पड़ेगा जुड़ना
वो जो लिखा है ‘हम भारत के लोग’ वहीँ बसेंगे
कितनी भी कर लो बहस, बदल लो संविधान
खाना वहीँ उगेगा, उन पर ही हम निर्भर रहेँगे

लौटते क़दमों का हिसाब शायद भूल जाएँ वो
बदले की भावना नहीं, इसी का हमने लिया फायदा
मगर इतिहास सब कुछ कर लेता है नोट
बतला देगा किसका था कायदा, किसका बेकायदा

सुनील जी गर्ग

अरे कुछ दिन जरा रुका

16-May-2020

ऐतिहासिक श्रमिक निवर्तन पर कुछ पंक्तियाँ एक वार्तालाप के रूप में लिखीं हैं, आशा है आपको कहीं छूएंगी अवश्य |

अरे कुछ दिन जरा रुका
सब ठीक हो जाईल, फिर कमायेंगे
तोहार बात सब ठीक
पर भैया हम तो घर जायेंगे ।

उहाँ का धरा है
बंजर ही तो जमीन पड़ी है
हम तोहार समुझाइ न सकत
मैया बाट जोहती द्वारे खड़ी है ।

अरे। फैक्ट्री खुलन लागी हैं
डबल मिलेगा ओवरटाइम
ओवर फोवर क्या करिबे
जब ई शरीर का आवेगा टाइम

पर भैया पैदल काहे चलिबै
बस चलत है, चालू है टिरेन
इब हमरे खन कछु नहीं
मूढ़ पिरात है, खाओ न बिरेन ।

पर तुम चले जाब तो,
कइसे चलिबा हमरा काम
जोन हम भूखो पड़ो रहे
तब कौन लियो हमरो नाम |

पर भैया अब तो पैकेज आई गवा
तुम्हरे सबे दुःख दूर भवेंगे
हमको कोनो दुःख नाहीं भैया
घर जावेंगे, अब हम वहीँ खटेंगे |

मगर सरकार तो भली है,
सबकी कर रही है पूरी मदत
सरकार सबे भली ही होत हैं,
जबे वोट परिबे, देखिबे वाए बखत |

मगर ओ मुसीबत के मारों
चना, अनाज तो लेत जाबा
जो हमने उगाया, हमें बाँटते हो
गाँव आकर ये सब हमसे लई जाबा |

इधर पइसा ज़्यादा है, सबे है पता
इसी शहर ने तोको इंसान है बनाया
शहर वालों की मुहब्बत के मारे हैं हम
मेहनतकश को काहे भिखारी बनाया |

अब कइसे करोगे जरा समुझाओ
कइसन तोहार दिवस बहुरेंगे
अब तुम आवोगे हमरे गावंन में
उहें मिलकर सबे आतम निर्भर बनेंगे |

सुनील गरगवा जी

(आज मज़दूर की भाषा में भी कई प्रदेशों की आंचलिक भाषा का मिक्स होइ गवा है, इसीलिए इस रचना को कृपया आंचलिक भाषा के स्तर पर त्रुटिपूर्ण मानते हुए माफ़ी देवें)

मुझमें उम्मीद उनसे थोड़ी ज़्यादा है

28-Mar-2020

बैटरी पड़ गयी है मंद, सुस्त हो गयी है घड़ी,
वैसे भी अब वक़्त अब देखना किसको है |
ज़िन्दगी की यही रफ़्तार लगने लगी है अच्छी,
कौन मुझसे आगे दौड़ेगा देखना मुझको है ||

दौड़े दौड़े से भागे से आगे फिरते थे मुझसे वो,
मेरा मज़ाक बनाने में मज़ा आता था उनको |
आज मेरी ज़िन्दगी से रश्क़ करते थमते नहीं,
वक़्त की करवट का पहले न पता था उनको ||

वैसे ग़म और ख़ुशी का भेद भूलते जा रहे हैं वो भी,
खुद को सन्यासी बताने में अब गुरेज नहीं |
मगर मुझमें उम्मीद उनसे थोड़ी ज़्यादा है ,
ये पक्का है, बाहर की रौशनी भीतर से तेज नहीं ||

सजा सबको बराबर मिलेगी, नियति का यही है फ़ैसला,
मगर अलग अलग है सबकी सहने की शक्ति |
क़ुसूर किसके ज़्यादा हैं किसके हैं दूसरे से कम,
फैसले से फ़रक न पड़े शायद, अब हो गयी विरक्ति ||

कोरो ना आशिकी

19-Mar-2020

आजकल जो शब्द चल रहे हैं उनको मिला कर ये रचना बना ली। सावधानियां भी इसमें शामिल हैं।

अच्छे लगने लगे उनको वो आशिक़,
हाथ धोकर थे जो पीछे पड़े ।
दरअसल जाने अनजाने वो लोग
कोरोना वायरस से बेहतर थे लड़े ।।

पीछे पड़ो मगर मीटर की दूरी बना कर रखो,
कन्या ने साफ़ कह दिया उन सबसे।
क्वारंटाइन में रहेंगे तो मेसेज से बात कर लेना,
सरकारी मेहमान बनने की तम्मना थी कबसे

इधर साबुन में शराब मिला मिला कर,
सेनेटाईज़र भी आशिक़ ने बना लिया।
उधर माशूक का दिल बदला तो यूं ही,
छींक कर सोशल डिस्टेंस बना लिया।

सोचा थोड़ा मुस्कान दूं सबको तो
यूं ही लिख दिया जरा नए अंदाज़ में।
ईश्वर करे न मिलना पड़े किसी ऐसे से,
जो इधर जल्दी ही लौटा हो जहाज में।।

सुनील जी गर्ग

कल हमारा आया तो अगर

21-Feb-2020

इतना ज़्यादा कर दिया भगवान भगवान
पता नहीं किसको मानूँ , किसको न सकूँ मान |
और कितनी लोगे अरे भाइयों मेरी जान,
सोच पर ताले डालोगे, हूँ मैं अदना सा इन्सान ||

भक्तों और अपराधियों में कम है इतना फरक,
भगवान के नाम पर धरती को बनाया है नरक |
खून से रंगे हाथ प्रतिमाओं पर चढ़ाएंगे अरक |
आस्था के दरख़्त तभी तो गए हैं दरक ||

क्या लिखूं क्या बोलूं, गुस्सा भी गया है सूख,
भगवान होता तो सबसे पहले मिटाता वो भूख |
दरअसल भगवान जरिया बना गया है दिखाने का रसूख,
गुंडों को बनाया राजा, प्रजा से हो गयी है चूक ||

कुछ ढाँचा बनेगा, इक बुत भी रखवाया जाएगा,
किसी का दिल निकालकर किसी को लगाया जाएगा |
मगर उस चौखट पर कोई आशिक़ न जाएगा ,
क़ौम की दोस्ती का जहां से ज़नाज़ा उठाया जाएगा ||

हम जिसको मानते थे कहते थे राम,
जिसका नाम लेकर करते थे दुआ सलाम |
हम करते थे, तब भी कहते थे करता वही है काम,
उसे खुद न पता होगा उसका ये होगा अंजाम ||

क्या कहें कोई मुसीबत भी नहीं आती जो मिला दे दिलों को,
बड़ी मजबूत हो चुकी हैं दीवारें, कैसे ढायें किलों को |
दिमाग और जुबां सब है बंद, कौन समझाये अगलों को,
अब कुछ हल होता नहीं क्या ताक़ीद करें सिलों को |

लिखने की हिम्मत भी रही है टूट, लगता रहता है डर,
अब तो किसी की कलम भी नहीं है अमर और अजर |
जहन में हूक उठती रहेगी, करतूतों पर पड़ती रहेगी नजर,
धोखे से तुम्हारा वक़्त आया है, कल हमारा आया तो अगर |

क़ातिल से मोहब्बत

11-Jan-2020

डरते डरते, वक़्त कुछ यूं आया, काफ़ूर दिल से हुआ सारा डर |
हमें क़ातिल से हो गयी मोहब्बत, फ़ूल झरेंगे, जब घुसेगा ख़ंजर ||

सुना है इंतहा से आगे है, इंतहा की भी इंतहा |
दिमाग़ हो दोनों तरफ़, तब तो हो जिरह की इंतहा ||

जब लाइन लगी थी वहां पर, सब तुम्हें ही तो गया था मिल |
जाओ हमसे ये भी ले लो, हमें जो मिला था थोड़ा सा दिल ||

आज थोड़ा जल्दी निकलता हूँ, अल्फाज़ जल्दी ही लगेंगे चुभने |
इलाक़ा था वो कोई और, जहाँ पर लोग लगे थे सुनने ||

आँख, कान सब देख सुन के, अब पड़ चुके हैं सुन्न |
रहने लगे हैं चोर घरों में, चौकीदार हैं पूरे टुन्न ||

क़ातिल से मोहब्बत करके, अब जुर्म में मैं भी शामिल |
क़यामत पर देखेंगे, क्या उनको हासिल, क्या मुझको हासिल ||